منچستر سیتیاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْ
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ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِ ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِ ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِ ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّ ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِ ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّ ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِ ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِ ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِ 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اًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٌٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍَََََََُُُُُُُِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّْْْْْْْْْْْْْاًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًً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ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِ ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِ ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِ ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّ ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِ ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّّ ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِ ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِ ِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِِ ََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََََُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُُ